देखा था उसे बचपन में
घर के पिछवाड़े से ही गुजरती थी वो
मदमस्त, उफनी सी
शरारती बच्चे की तरह ही तो थी वो
हरे पीले, तरह तरह के
जीव जंतुओं की शरणी थी वो
भरी भरी, दौड़ती सी
ठंडी हवाओं की जननी थी वो
घर की बगिया के पेड़ों की
प्यास बुझाती मालिन थी वो
घर के सभी काम करवाती
कंठ की तृप्ति, रमणीय थी वो
बचपन बीता, समय रथ घुमा
अब एक छोटी धारा बहती
लगती नहीं, कभी नदी थी वो
गर्मी में अस्तित्व को लडती
बूढ़े , थके क्रन्तिकारी सी वो
शहर के नालों से लडती
अब बूढ़े धीमे कदम बढाती वो
बस अब काले आंसू बहाती
जीवों के स्पंदन को तरसती वो
कभी मटकों को भरने वाली
अब घर के नल से जलती वो
जिस बगिया की थी मालिन
उसे बंज़र देख, रोती माँ सी लगती वो .....
धन्यवाद शास्त्री जी, आपकी छोटी सी सराहना भी मुझे और लिखने के लिए जोश से भर देती है.
ReplyDeleteghar ke pichhware se bahti wo nadi.. sach me apni lagti hai, maa si:).
ReplyDeletebahut pyari si rachna........
बहुत बहुत धन्यवाद सिन्हा जी :)
Deleteकल 15/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार. ब्लॉग जगत में नया हूँ.. आपके प्रोत्साहन ने जोश से भर दिया..:)
Deleteसुंदर रचना ....
ReplyDeleteधन्यवाद संगीता जी :)
Deleteअच्छी लगी रचना..
ReplyDeleteधन्यवाद अमृता जी :)
Deleteबहुत सुन्दर रचना...पर्यावरण जागरूकता के भाव लिए..
ReplyDeleteटंकण त्रुटि ठीक कर लें..
२ जगह बघिया नहीं बगिया करें.
शुभकामनाएँ.
धन्यवाद एवं त्रुटियाँ बताने के लिए आभार.. :)
Deletebhawbhini.......
ReplyDeleteधन्यवाद मृदुला जी :)
Deleteसुन्दर सृजन !
ReplyDeleteआभार !
धन्यवाद मनीष जी :)
Deleteबहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteधन्यवाद रीना जी :)
Deleteधन्यवाद शांति जी :)
ReplyDeleteसुंदर भाव हैं इस कविता में। ..बधाई हो।
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