देखा था उसे बचपन में
घर के पिछवाड़े से ही गुजरती थी वो
मदमस्त, उफनी सी
शरारती बच्चे की तरह ही तो थी वो
हरे पीले, तरह तरह के
जीव जंतुओं की शरणी थी वो
भरी भरी, दौड़ती सी
ठंडी हवाओं की जननी थी वो
घर की बगिया के पेड़ों की
प्यास बुझाती मालिन थी वो
घर के सभी काम करवाती
कंठ की तृप्ति, रमणीय थी वो
बचपन बीता, समय रथ घुमा
अब एक छोटी धारा बहती
लगती नहीं, कभी नदी थी वो
गर्मी में अस्तित्व को लडती
बूढ़े , थके क्रन्तिकारी सी वो
शहर के नालों से लडती
अब बूढ़े धीमे कदम बढाती वो
बस अब काले आंसू बहाती
जीवों के स्पंदन को तरसती वो
कभी मटकों को भरने वाली
अब घर के नल से जलती वो
जिस बगिया की थी मालिन
उसे बंज़र देख, रोती माँ सी लगती वो .....