Saturday, March 3, 2018

शांत रातें 2

शांत रातों की कड़ी में स्वलिखित एक और रचना:-

वो उसके सामने खड़ी हुई थी। हमेशा की तरह वही जादुई एहसास बिखेरते हुए। वही मंत्र मुग्ध करने वाली उसकी मुस्कान। आखिर कैसे कोई भी उसकी इस मासूमियत भरी मुस्कुराहट पर अपना दिल नही हार सकता। वो उसको गले से लगा लेना चाहता था पर कुछ सोचते हुए उसने अपना हाथ उससे हाथ मिलाने के लिए बढ़ा दिया।

वो बस एक बार और उसके चेहरे को देख लेना चाहता था। बस एक बार और उसके चेहरे की मुस्कुराहट को अपने में समेट लेना चाहता था। सामने खड़ी हुई उस लड़की की आंखों की चमक जैसे उस लड़के ज़ेहन और अन्तरात्मा में कोई विद्युतीय संचार कर देती हो। बस इसी शक्ति को जैसे वो हमेशा के लिए अपने अंदर भर लेना चाहता था। उनके साथ बिताए हर लम्हो की शक्ति, उसकी यादों की शक्ति... वो यादें जिन्हें शायद वो अकेलेपन में सोच कर मुस्कुराया करेगा...जो शायद कभी कभी उसकी आँखों से आँसू बनकर निकलें... खुशियों के आँसू..।

वो उसको एक बार फिर से देख कर खुश था। "लोग कहते हैं कि प्रेम बहुत दर्द देता है, जब वो एकतरफा होता है। पर सच तो यह भी है कि हमारे दर्द और कठिनाईयां ही हमें बेहतर बनाते हैं। मुझे पता है कि अपने दिल की गहराइयों में कहीं न कहीं, तुम जानती हो मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ। पर तुमने अपना साथी चुन लिया है। और आज मैंने जान लिया है
कि प्यार क्या होता है और तुम्हारी कितनी अहमियत है मेरी ज़िंदगी में। तुम्हारे प्यार में पड़कर ही मैंने जिंदगी और मानवता की गहराइयों को जाना है। मैं हमेशा ही दुआ करूँगा की ईश्वर चाहे तो तुम्हारे भाग्य में लिखे सारे गम मुझे देदे, पर इस मासूम चेहरे को हमेशा यूँ ही मुस्कुराता हुआ रखे..."। वो ये सारी बातें उससे कह देना चाहता था।

एकाएक, उसे एहसास हुआ कि दोनो के बीच शांति काफी लंबी हो गयी है।" अहम... आखिरकार तुम्हारे जन्मदिन की पार्टी मैंने तुमसे ले ही ली। इस शानदार रेस्टोरेंट में डिनर के लिए तुम्हारा शुक्रिया। तुम्हारा घर तो यहां पास में ही है, पर मुझे अब निकलना चाहिए।" वो बोला।

आसमान में सितारे चमक रहे थे। ठंडी हवा बह रही थी। वो रेस्टोरेंट के लॉन में खड़ी हुई थी। वो उसको जाता हुआ देख कर सोच रही थी "क्या कोई सच में किसी से इतना प्यार कर सकता है.. क्यों हमेशा मुझे देख कर उसकी आँखों में एक चमक आ जाती है.. क्यों आज उससे हाथ मिलाने पर जैसे मेरे शरीर में एक बिजली सी दौड़ गयी.. क्यो आज उसके चेहरे पर खुशी थी पर मुझे उसकी आँखों में आँसूओं का एहसास हो रहा था... क्यों आज मैं खुश नही हूँ।  क्या मुझे उससे प्यार हो रहा है..."

वो उस लड़के को जाता हुआ देख रही है। आसमान में सितारे कभी कभी तेज कभी निष्तेजित होते हुए चमक रहें हैं। ठंडी हवा अभी भी बह रही है। रात्रि शांत है...।

Wednesday, July 20, 2016

शांत रातें


मेरी स्वलिखित अंग्रेजी लघुकथा कड़ियों में से एक का हिंदी अनुवाद..त्रुटियों के  लिए क्षमा !!!

शांत रातें 1




आज काफी देर हो गयी थी. गर्मियों का सूरज आसमान में अपनी अथाह शक्ति का एहसास कराते हुए ज़ोर से चमक रहा था. सुबह के ९ बज चुके थे और मैं अपने ऑफिस के लिए लेट हो चुका  था. मैं रोज़ अनूपनगर से विशालनगर, जहाँ मेरा ऑफिस है , ३० किलोमीटर दूर, अपनी कार से जाता  हूँ. यूँ तो मैं सरकारी कर्मचारी विशालनगर में भी कोई कमरा किराये से लेकर रह सकता था. पर रोज़ शाम वापस लौट कर अपने परिवार को देखने से बेहतर एहसास कोई नहीं है.

मैंने अपनी कार शुरू करी और ५ मिनट में ही क़स्बा बहुत पीछे छुट चुका था. गर्मी से भरी हुई उस ग्रामीण सड़क पर मेरी कार अकेली चल रही थी. कभी हरी तो कभी पीली फसलों  से भरी रंग बदलती क्षठा का कार से आनंद लेते हुए मैं चला जा रहा था. इस कस्बे से उस कस्बे के बीच बस खेतों  के अलावा और कुछ नहीं था.

पर हाँ !! एक और दृश्य था जो मैं आपको बताना भूल गया. रास्ते में सड़क किनारे रोज़ मैं उस वृद्ध माँ को देखता था. कम से कम ९० साल की, दुबली पतली सी ये माँ बरगद की छाँव तले रोज़ पानी का बड़ा सा मटका लेकर प्यासे राहगीरों को एक रूपये में गिलास भर पेयजल बेचती थीं. 

अचानक मुझे याद आया कि चूँकि आज मैं लेट हो रहा था, तो जल्दी जल्दी में, मैं अपनी पानी की बोतल रखना भूल गया था. मैंने कार उस वृद्ध माँ के पास रोक दी. 

मैंने कहा "माँ , एक गिलास पानी के कितने रूपये होंगे ?"

वो अपनी बूढी आवाज़ में  बोलीं " बेटा !! पानी पिलाना तो पुण्य का काम होता है. यूँ तो इसे यूँ ही मुफ्त में देना चाहिए, पर अपनी गुज़र करने के लिए मैं एक रुपये प्रति गिलास लेती हूँ. और कभी कोई गरीब वो भी नहीं दे पाता तो उसे यूँ ही दे देती हूँ. आखिर वो हम सबको ही देख रहा है."

ये बोलते हुए, बुढ़ापे से कांपते हाथों से  उन्होंने मुझे मटके से पानी निकाल कर दे दिया. बहुत प्यासा होने के कारण में २ गिलास पानी पिया. पानी बहुत ही मीठा और ठंडा था . मैंने रूपये  देने के लिए अपनी जेब से पर्स निकला. मैंने देखा कि मुझ पर बस १०० के नोट थे. और एक १० का नोट था. मैंने वो १० का नोट देते हुए माँ से कहा ये लीजिये. उन्होंने कहा बेटे मुझ पर इसके खुल्ले नहीं हैं. मैंने कहा की माँजी रख लीजिये. मैं यहाँ से रोज़ निकलता हूँ. पर बहुत मनाने पर भी वो ज्यादा रूपये लेने को तैयार नहीं हुईं और मुझसे कहा  "बेटे, तुम रोज़ यहीं से निकलते हो, जब खुल्ले २ रुपये हों तब दे देना . अभी अपने काम पर जाओ और दिल लगा कर काम करो"

मैं लेट हो रहा था तो मैंने भी जल्दी में उनको धन्यवाद कहा और अपनी कार शहर की ओर बढ़ा दी. काम करते हुए पूरे समय उनका बूढा चेहरा मेरे सामने घूम रहा था. शाम को काम ख़त्म होते ही पास की पान वाली दूकान से मैंने रूपये खुल्ले करवाए और और जेब में अलग से रख लिए. कुछ ही पलों में मैं उसी सड़क पर अपने घर की ओर बढ़ रहा था.  मुझे दूर से वो बरगद का पेड़ दिख रहा था जिसके नीचे वो वृद्ध माँ बैठती थीं.  जैसे जैसे मैं उस पेड़ की ओर बढ़ने लगा मुझे उस पेड़ के नीचे भीड़ लगी दिखने लगी. मेरा मन आशंकित हो उठा.


मैंने पेड़ के पास कार रोकी और भीड़ के लोगों  से पूछा कि क्या हुआ. भीड़ में से एक आदमी बोला "साहब, बूढ़ी औरत थी. पानी बेचती थी यहाँ. वो गुज़र गयी, दुनिया में कोई नहीं था उसका. एक लड़का था जो उसे छोड़ कर भाग गया." मैं कार से उतर कर भीड़ को चीरता हुआ अन्दर गया. वही झुर्रियों से भरा उनका चेहरा एकदम शांत था. वो लेटी हुईं थीं. पास ही उनका मटका टूटा हुआ पडा था. ऑफिस से घर तक का ये सफर मेरे लिए सबसे लंबा सफ़र था.

घर पर सब सो चुके हैं., रात के २ बज रहे हैं. पर नींद मुझसे कोसों दूर है. "वो हम सबको देख रहा है, बेटा !!" शायद उसने उन्हें भी देख कर एक बेहतर जगह भेज दिया. मेरे हाथ में अभी भी वो २ रूपये हैं. आसमान में सितारे चमक रहे हैं..रात्रि शांत है......

Saturday, July 16, 2016

नाशपाती का पेड़

बहुत समय पहले की बात है , सुदूर दक्षिण में किसी प्रतापी राजा का राज्य था . राजा के तीन पुत्र थे, एक दिन राजा के मन में आया कि पुत्रों को को कुछ ऐसी शिक्षा दी जाये कि समय आने पर वो राज-काज सम्भाल सकें.

इसी विचार के साथ राजा ने सभी पुत्रों को दरबार में बुलाया और बोला , “ पुत्रों , हमारे राज्य में नाशपाती का कोई वृक्ष नहीं है , मैं चाहता हूँ तुम सब चार-चार महीने के अंतराल पर इस वृक्ष की तलाश में जाओ और पता लगाओ कि वो कैसा होता है ?” राजा की आज्ञा पा कर तीनो पुत्र बारी-बारी से गए और वापस लौट आये
.
सभी पुत्रों के लौट आने पर राजा ने पुनः सभी को दरबार में बुलाया और उस पेड़ के बारे में बताने को कहा।
पहला पुत्र बोला , “ पिताजी वह पेड़ तो बिलकुल टेढ़ामेढ़ा , और सूखा हुआ था .”
नहीं -नहीं वो तो बिलकुल हराभरा था , लेकिन शायद उसमे कुछ कमी थी क्योंकि उसपर एक भी फल नहीं लगा था .”, दुसरे पुत्र ने पहले को बीच में ही रोकते हुए कहा .
फिर तीसरा पुत्र बोला , “ भैया , लगता है आप भी कोई गलत पेड़ देख आये क्योंकि मैंने सचमुच नाशपाती का पेड़ देखा , वो बहुत ही शानदार था और फलों से लदा पड़ा था .”
और तीनो पुत्र अपनी -अपनी बात को लेकर आपस में विवाद करने लगे कि तभी राजा अपने सिंघासन से उठे और बोले , “ पुत्रों , तुम्हे आपस में बहस करने की कोई आवश्यकता नहीं है , दरअसल तुम तीनो ही वृक्ष का सही वर्णन कर रहे हो . मैंने जानबूझ कर तुम्हे अलग- अलग मौसम में वृक्ष खोजने भेजा था और तुमने जो देखा वो उस मौसम के अनुसार था.
मैं चाहता हूँ कि इस अनुभव के आधार पर तुम तीन बातों को गाँठ बाँध लो :


पहली , किसी चीज के बारे में सही और पूर्ण जानकारी चाहिए तो तुम्हे उसे लम्बे समय तक देखना-परखना चाहिए . फिर चाहे वो कोई विषय हो ,वस्तु हो या फिर कोई व्यक्ति ही क्यों हो


दूसरी , हर मौसम एक सा नहीं होता , जिस प्रकार वृक्ष मौसम के अनुसार सूखता, हरा-भरा या फलों से लदा रहता है उसी प्रकार मनुषय के जीवन में भी उतार चढाव आते रहते हैं , अतः अगर तुम कभी भी बुरे दौर से गुजर रहे हो तो अपनी हिम्मत और धैर्य बनाये रखो , समय अवश्य बदलता है।
और तीसरी बात , अपनी बात को ही सही मान कर उस पर अड़े मत रहो, अपना दिमाग खोलो , और दूसरों के विचारों को भी जानो। यह संसार ज्ञान से भरा पड़ा है , चाह कर भी तुम अकेले सारा ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते , इसलिए भ्रम की स्थिति में किसी ज्ञानी व्यक्ति से सलाह लेने में संकोच मत करो।

Saturday, October 12, 2013

खुशियाँ-अहसासों से प्रेरित एक लेख

बहुत समय बाद वापस ब्लॉग पर आया हूँ. समय बहुत जल्दी बीतता है. अहसास ही नहीं हुआ और ३ साल जैसे पंछी की तरह पंख लगाकर बीत गए. रचनाये तो बहुत लिखी, बस यहाँ नहीं डाल पाया. आज ब्लॉग वापस लिखते हुए ऐसा लग रहा है जैसे कुछ खोया हुआ वापस मिल गया. आज मैं अपनी रचना नहीं बल्कि एक ऐसे गीतकार की पंक्तिया लिख रहा हूँ, जो मेरे दिल के बहुत करीब हैं.

दिलों में तुम अपनी बेताबियाँ लेकर चल रहे हो, तो जिंदा हो तुम
नज़र में ख्वाबों की बिजलियाँ लेकर चल रहे हो, तो जिन्दा हो तुम

हवा के झोंकों के जैसे आज़ाद रहना सीखो
तुम एक दरिया के जैसे लहरों में बहना सीखो
हर एक लम्हे से तुम मिलो खोले अपनी बाहें
हर पल एक नया समाँ देखें ये निगाहें

जो अपनी आँखों में हैरानियाँ लेकर चल रहे हो, तो जिंदा हो तुम 
दिलों में तुम अपने बेताबियाँ लेकर चल रहे हो, तो जिंदा हो तुम


-- जावेद अख्तर जी 

किसी ने सच कहा है की दुनिया की हर चीज़ यक़ीनन खुबसूरत है, बस नज़रें पारखी होनी चाहिए. आज हम अपनी ज़िन्दगी में इतने खो चुके हैं कि बस ज़िन्दगी जीने के अलावा हर चीज़ की फ़िक्र है.
कॉलेज मिलने के बाद मेरी ज़िन्दगी पूरी तरह बदल गयी थी. रोज़ की वो छोटी छोटी चीज़ें जो मुझे खुशियों से भर देती थीं, कहीं खो गयी. लगता था घर से बाहर अनजान शहर में बचपन कहीं गुम हो गया है. किसी भी चीज़ की उपलब्धि की ख़ुशी नहीं होती थी, वो ख़ुशी जो दिल में तितलियों के उड़ने का एहसास करा दे. जो बचपन में होता था.

पर फिर एक दिन एक सुबह कमरे की खिड़की पे एक चिड़िया आकर बैठ गयी.और अपनी मीठी आवाज़ में अपना कलरव करने लगी जैसे अपनी आवाज़ से मुझे उठा रही हो. बहुत देर तक अपना गाना सुना कर वो उड़ गयी. पर मुझे एक एहसास ज़रूर करा गयी. ज़िन्दगी की हर सुबह खुशियों के गीतों से हो और आप ज़िन्दगी का हर काम दिल के चहचहाते हुए करें, तो आपका बचपन और खुशियाँ आपसे कोई नहीं छीन सकता.

और एक बात और "अपनी आँखों में हैरानियाँ बसाइये"
ज़िन्दगी की कितनी छोटी छोटी चीज़ें हमे खुश कर सकती हैं पर हम उनपर कभी गौर भी नहीं करते. ज़रा खोजिये खुशियाँ आपके आस पास ही छुपी हैं, ज़रूर मिलेंगी.

ज़िन्दगी की हर चीज़ खुशियों की नज़र से देखिये.

क्या पता ज़िन्दगी कब आपको कुछ हसीन दिखा दे .


Monday, March 12, 2012

इक नदी बहा करती थी....



देखा था उसे बचपन में 
घर के पिछवाड़े से ही गुजरती थी वो
मदमस्त, उफनी सी 
शरारती बच्चे की तरह ही तो थी वो 

हरे पीले, तरह तरह के 
जीव जंतुओं की शरणी थी वो
भरी भरी, दौड़ती सी
ठंडी हवाओं की जननी थी वो

घर की बगिया के पेड़ों की 
प्यास बुझाती मालिन थी वो
घर के सभी काम करवाती
कंठ की तृप्ति, रमणीय थी वो 

बचपन बीता, समय रथ घुमा

अब एक छोटी धारा बहती 
लगती नहीं, कभी नदी थी वो
गर्मी में अस्तित्व को लडती
बूढ़े , थके  क्रन्तिकारी सी वो 

शहर के नालों से लडती
अब बूढ़े धीमे कदम बढाती वो 
बस अब काले आंसू बहाती 
जीवों के स्पंदन को तरसती वो

कभी मटकों को भरने वाली 
अब घर के नल से जलती वो
जिस बगिया की थी मालिन 
उसे बंज़र देख, रोती माँ सी लगती वो .....

Thursday, July 1, 2010

1 जुलाई--वो बारिश , वो स्कूल .... मेरे मन कि एक उन्मुक्त उड़ान

१ जुलाई

याद है कितनी तारीख है आज, १ जुलाई ....फिर वही 1 जुलाई..
उमंग भर उठी मन में ..और ली फिर इसने भूत की ओर अंगडाई...

(मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है उसका मन और शायद सबसे बड़ी कमजोरी भी....पर बड़ा उन्मुक्त रहता है...हम इसके गुलाम हैं ... सुना है की भगवान् बुद्ध ने नियंत्रित कर लिया था इसे ...ख़ैर... दुनिया भर के वैज्ञानिक टाइम मशीन की खोज में लगे हुए हैं .. पर मैं तो उसमे हर कभी यात्रा करता रहता हूँ.. और सोचता हूँ की सभी करते होंगे...इस बार भी ले चला ये मुझे मेरे बचपन में )

याद है मुझे आज भी.... वो भीनी खुशबु मिटटी की ..
वो हलकी हलकी बौछार.... और वो मौसम में बहार ....

वो हरियाली उन पेड़ो पे छाई हुई....
वो मिटटी की सड़कें कीचड से नहाई हुई

(आज तो उस खुशबु को तरसता हूँ .... शायद बारिश होना कम हो गयी है ... या हमारी सड़के सीमेंट की बना दी गयी हैं ...इसलिए... पेड़ भी नहीं मिलते हैं आज कल देखने को...हर जगह .... पता नहीं.. सुना था की प्राण वायु पेड़ ही उत्सर्जित करते है... शायद छोटे जीव भी करने लगे हैं आज कल .... या हमारे पापों ने हमें जेहरीली गैसों में भी जीना सिखा दिया....डार्विन का सिद्धांत शायद एकदम ही सही था ... यहाँ जीने की लड़ाई है ...जो बेहतर है वो जिन्दा रहेगा ... )

वो स्कूलों का खुलना. और उदास मन से जाना ..
वो नया बस्ता और किताबे पाकर ख़ुशी से झूम जाना ...

(कभी गौर किया आपने कि.... नयी किताबो में भी अलग सी ही खुशबु होती थी... और शायद उन रंग बिरंगे चित्रों को देखने का मन तो आपको भी हुआ होगा नयी किताबे मिलने पर .... फिर बाद में चाहे वे ही क्यों न बुरी लगने लगती हो.... और उस नए बस्ते में भी एक अलग ही गंध होती थी ...कभी ऐसी गंध मैंने नए कपड़ो में महसूस नहीं की.... पता नहीं क्यों ...बताइयेगा की आपको भी आती थी वो गंध या सिर्फ मेरे ही विचरो की खुशबु थी वो ..... )

वो साथिओ के साथ बिना ड्रेस उतारे ही खेलने को दौड़ जाना.... वो गिरना गिराना ...
वो रोना रुलाना .. वो प्यार से रोते दोस्तों को बड़ो की तरह समझाना
" बहादुर लड़के इस तरह थोड़ी रोते"

वो स्कूल से आने पर पर माँ से लाड से लिपट जाना
और उनका अपने हाथो से हमे खाना खिलाना .....

(अब तो मैं बड़ा हो गया हूँ फिर भी इच्छा होती है की माँ से कह दूँ कि "माँ एक बार और मुझे फिर से अपने हाथो से खाना खिलाओ न ...और माँ मुझे तुमसे वो लोरी भी सुननी है ... वेसी नींद नहीं आती जेसी लोरी सुनने पर आती थी ")

वो मोहल्ले भर में धमा चौकड़ी मचाना...
वो बारिश में भीगना और फिर माँ से डांट खाना ....

वो दूर लगे उस पेड़ के भूत कि बातें ...
वो डर लगने पर भी यारों को बहादुरी बताना...

वो शाम ढलने पर छिपन छिपाई खेलना ...
और किसी साथी के साथ नयी जगह खोजना ...

वो पडोसी का घर भी अपना ही घर हुआ करता था...
और उसके पडोसी का भी..या शायद पूरा मोहल्ला...

(अब तो डुप्लेक्स चल गये हैं ... अब मोहल्ले बसते नहीं हैं ... बसे बसाए मिलते हैं ..हमे तो बस मकान खरीदने पड़ते हैं... बड़े शहरों में सुना है के पडोसी प्रथा ख़तम हो गयी है .. हमारे यहाँ आज भी होली दिवाली पे पड़ोसियों के घर पकवान भेजे जाते हैं . और हमारे यहाँ भी आते हैं ...मैं खुश हूँ कि छोटे शहर में रहता हूँ... हाँ जल्द ही कॉलेज मिल जायेगा... शायद इंदौर में ... बहुत याद आयेगी घर की ..यहाँ के माहोल की )

वो पिताजी का नए खिलौनों को लाना ...
और खिलौने मिलते ही साथियो को दिखाना ...

(पिताजी से डर का रिश्ता हमेशा रहता था ... आज भी है ...पर पिताजी तब ज्यादा खुश दिखते थे ...आज भी समझ नहीं पाता क्यों... . शायद इसलिए के तब तो खिलौनों के लिए जिद्द कर लेता था .. अब वो भी नहीं करता हूँ .... मन करता है की लिपट जाऊं उनसे .... पर क्या कोई सिखा सकता है मुझे की वो बचपन की तरह कैसे लिपट जाऊ उनसे और कह दूँ..के कितना प्यार है उनसे मुझे ... )

बहुत याद आती है उन दिनों की ...
धीरे से अश्रुधारा भी बह आती है .....
ये हलकी बौछार जब भी आती है...
मन में एक अजीब सी उमंग लाती है.....

Monday, June 28, 2010

क्या आप भगवान में विश्वास करते हैं.????




यह तब की बात है जब मैं 5 साल का था . मैं खेल के मैदान में खेल रहा था ...... "छिपन - छिपाई " ..... कॉलोनी के बच्चों के एक बड़े झुंड के साथ.... एक नयी छिपाने की जगह की तलाश में ..... मैं एक लोहे की कीलों एवं कांच भरी जगह में चला गया. सोचा " मैंने जूते तो पहने हैं . कुछ नहीं होगा " .... और फिर वाही हुआ जो भाग्य में था ... जूते होने के बावजूद एक कील सीधे जूते को नीचे से पार करती हुई मेरे पैर के तलवे में जा घुसी......... तकरीबन २ इंच लम्बी लोहे की कील ........ नरक !!!!! दर्द ..... बहुत ज्यादा था .. किन्तु जो बात दिमाग में थी उस समय वो यह के इस कील को बहार कैसे निकालूं ........ मैंने कुछ नहीं सोचा... और एक झटके से पैर से जूता निकाल फेका और रक्त का एक सोता जैसे फुट पड़ा हो उस समय ...... तब तक बाकी साथी भी वहाँ आ गये थे ........... किसी तरह गोद में उठाकर वो लोग मुझे घर लाये ......... इतनी ज्यादा चिंता इतना ज्यादा तनाव ......... इतना दर्द ......... और अचानक सब गायब हो गया ........ लगा मनो मैंने परमेश्वर का चेहरा देख लिया हो .... क्योकि जिसे सबसे पहले देखा था मैंने घर पहुँच कर वो मेरी माँ का चेहरा था .......... उस समय लगा मुझे कि क्या माँ का चेहरा , उस परमेश्वर का चेहरा था ?



एक बार मैंने इश्वर को महसूस किया ...... जब मैं 9 या 10 साल के आसपास का था ..... मेरे घर के मेन गेट पर एक गलियारा है ...... मेरे बचपन क्रिकेट स्टेडियम ..... मुझे याद है ....... हम क्रिकेट खेला करते थे...... मेन और मरे भैया .... भैया मुझसे 5 साल बड़े हैं ...... खेल के नियम थोड़े अलग होते थे ..... पहली बल्लेबाजी सदा मेरी होती थी.....मैं आउट तब ही माना जाता था जब तक मैं 3 बार आउट नहीं हो जाता था .. और भैया तब भी आउट माने जाते थे ..जब गेंद एक बार धरती से भी बाउंस हो कर मेरे हाथ में आ चुकी हो ....... और तो और मैं कई बार उन्हें उनकी बल्लेबाजी दिए बगैर भाग जाता था ....... हम लोग घर में कुश्ती भी खले करते थे..... अखाडा होता थे घर का बिस्तर..... कई बार मैं उन्हें जोर से मार देता था ....... वो दर्द से कुछ देर क लिए रुक जाते पर फिर थोड़ी देर बाद हम लोग फिर शुरू हो जाते ....वो सब यादें मेरे मन में अब भी है ........ पर आज सोचता हूँ की क्यों कभी मुझे दर्द नहीं होता था उनके साथ कुश्ती खेलने पर ..... क्यों मुझे हर बार अपनी बल्लेबाजी मिलती थी..... कभी कभी लगता है, क्या वो आत्मा परमेश्वर की आत्मा थी जो मेरे साथ खेलती थी ?


एक बार उसे महसूस किया ....... जब गर्मियों का मौसम था ........ मैं 12 या १३ साल का था ..... गर्मी झुलसानेवाली पड़ रही थी ......... शाम का समय बहुत अच्छा होता था....... इसलिए नहीं कि वातावरण में ताजगी और ठंडक घुली होती थी ..... लेकिन इसलिए कि पिताजी रोज़ शाम को ice cream लाते थे....... लेकिन वह स्वयं कभी आइसक्रीम नहीं खाते थे......और उनके हिस्से कि ice cream भी मुझे खाने को मिलती थी.......वे कहते थे कि उन्हें ice cream पसंद नहीं...... और मैं ज्यादा ice cream पाकर खुश हो जाता था ......... एक बार मैंने देखा वे मुझे ice cream खाते हुए देख कर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे ....... और सच मानिये मैंने उस समय भगवान् को देखा था .........


मैं तो भगवान् पे विश्वास करता हूँ .... क्या आप करते हैं ????