Thursday, July 1, 2010

1 जुलाई--वो बारिश , वो स्कूल .... मेरे मन कि एक उन्मुक्त उड़ान

१ जुलाई

याद है कितनी तारीख है आज, १ जुलाई ....फिर वही 1 जुलाई..
उमंग भर उठी मन में ..और ली फिर इसने भूत की ओर अंगडाई...

(मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है उसका मन और शायद सबसे बड़ी कमजोरी भी....पर बड़ा उन्मुक्त रहता है...हम इसके गुलाम हैं ... सुना है की भगवान् बुद्ध ने नियंत्रित कर लिया था इसे ...ख़ैर... दुनिया भर के वैज्ञानिक टाइम मशीन की खोज में लगे हुए हैं .. पर मैं तो उसमे हर कभी यात्रा करता रहता हूँ.. और सोचता हूँ की सभी करते होंगे...इस बार भी ले चला ये मुझे मेरे बचपन में )

याद है मुझे आज भी.... वो भीनी खुशबु मिटटी की ..
वो हलकी हलकी बौछार.... और वो मौसम में बहार ....

वो हरियाली उन पेड़ो पे छाई हुई....
वो मिटटी की सड़कें कीचड से नहाई हुई

(आज तो उस खुशबु को तरसता हूँ .... शायद बारिश होना कम हो गयी है ... या हमारी सड़के सीमेंट की बना दी गयी हैं ...इसलिए... पेड़ भी नहीं मिलते हैं आज कल देखने को...हर जगह .... पता नहीं.. सुना था की प्राण वायु पेड़ ही उत्सर्जित करते है... शायद छोटे जीव भी करने लगे हैं आज कल .... या हमारे पापों ने हमें जेहरीली गैसों में भी जीना सिखा दिया....डार्विन का सिद्धांत शायद एकदम ही सही था ... यहाँ जीने की लड़ाई है ...जो बेहतर है वो जिन्दा रहेगा ... )

वो स्कूलों का खुलना. और उदास मन से जाना ..
वो नया बस्ता और किताबे पाकर ख़ुशी से झूम जाना ...

(कभी गौर किया आपने कि.... नयी किताबो में भी अलग सी ही खुशबु होती थी... और शायद उन रंग बिरंगे चित्रों को देखने का मन तो आपको भी हुआ होगा नयी किताबे मिलने पर .... फिर बाद में चाहे वे ही क्यों न बुरी लगने लगती हो.... और उस नए बस्ते में भी एक अलग ही गंध होती थी ...कभी ऐसी गंध मैंने नए कपड़ो में महसूस नहीं की.... पता नहीं क्यों ...बताइयेगा की आपको भी आती थी वो गंध या सिर्फ मेरे ही विचरो की खुशबु थी वो ..... )

वो साथिओ के साथ बिना ड्रेस उतारे ही खेलने को दौड़ जाना.... वो गिरना गिराना ...
वो रोना रुलाना .. वो प्यार से रोते दोस्तों को बड़ो की तरह समझाना
" बहादुर लड़के इस तरह थोड़ी रोते"

वो स्कूल से आने पर पर माँ से लाड से लिपट जाना
और उनका अपने हाथो से हमे खाना खिलाना .....

(अब तो मैं बड़ा हो गया हूँ फिर भी इच्छा होती है की माँ से कह दूँ कि "माँ एक बार और मुझे फिर से अपने हाथो से खाना खिलाओ न ...और माँ मुझे तुमसे वो लोरी भी सुननी है ... वेसी नींद नहीं आती जेसी लोरी सुनने पर आती थी ")

वो मोहल्ले भर में धमा चौकड़ी मचाना...
वो बारिश में भीगना और फिर माँ से डांट खाना ....

वो दूर लगे उस पेड़ के भूत कि बातें ...
वो डर लगने पर भी यारों को बहादुरी बताना...

वो शाम ढलने पर छिपन छिपाई खेलना ...
और किसी साथी के साथ नयी जगह खोजना ...

वो पडोसी का घर भी अपना ही घर हुआ करता था...
और उसके पडोसी का भी..या शायद पूरा मोहल्ला...

(अब तो डुप्लेक्स चल गये हैं ... अब मोहल्ले बसते नहीं हैं ... बसे बसाए मिलते हैं ..हमे तो बस मकान खरीदने पड़ते हैं... बड़े शहरों में सुना है के पडोसी प्रथा ख़तम हो गयी है .. हमारे यहाँ आज भी होली दिवाली पे पड़ोसियों के घर पकवान भेजे जाते हैं . और हमारे यहाँ भी आते हैं ...मैं खुश हूँ कि छोटे शहर में रहता हूँ... हाँ जल्द ही कॉलेज मिल जायेगा... शायद इंदौर में ... बहुत याद आयेगी घर की ..यहाँ के माहोल की )

वो पिताजी का नए खिलौनों को लाना ...
और खिलौने मिलते ही साथियो को दिखाना ...

(पिताजी से डर का रिश्ता हमेशा रहता था ... आज भी है ...पर पिताजी तब ज्यादा खुश दिखते थे ...आज भी समझ नहीं पाता क्यों... . शायद इसलिए के तब तो खिलौनों के लिए जिद्द कर लेता था .. अब वो भी नहीं करता हूँ .... मन करता है की लिपट जाऊं उनसे .... पर क्या कोई सिखा सकता है मुझे की वो बचपन की तरह कैसे लिपट जाऊ उनसे और कह दूँ..के कितना प्यार है उनसे मुझे ... )

बहुत याद आती है उन दिनों की ...
धीरे से अश्रुधारा भी बह आती है .....
ये हलकी बौछार जब भी आती है...
मन में एक अजीब सी उमंग लाती है.....

13 comments:

  1. उम्मीद है यह लेख आपको पसंद आएगा ... आज फिर मेरे मन ने एक उन्मुक्त उड़ान भरी और परिणाम स्वरुप यह लेख मिला ... शायद आप इसे एक कविता भी कह सकते हैं .. पर जहाँ भी मेरे विचारों ने और उन्मुक्त होकर घूमना चाहा , मैंने जाने दिया.... इस लेख को मैंने सीधा यही ब्लॉगर पे उतारा है.. और कही भी एक बार भी संपादित नहीं किया ... कही कुछ गलतियाँ हुई हो ..तो क्षमा चाहूँगा ...
    आपका अपना
    --अभिनव पाण्डेय

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  2. पहली बार इस ब्लॉग पर आया हूँ , बहुत अच्छा बनाया है

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  3. बहुत याद आती है उन दिनों की ...
    धीरे से अश्रुधारा भी बह आती है .....
    ये हलकी बौछार जब भी आती है...
    मन में एक अजीब सी उमंग लाती ...

    Bahut achha likha hai.

    aabhar.

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  4. really very nice......

    its heart touching...

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  5. इसीतरह अच्छा लिखे,खूब लिखें और बाकी को भी पढ़ें ...यही शुभकामनायें. ब्लॉग जगत में स्वागत है...
    www.jugaali.blogspot.com

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  6. ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है ,
    हिंदी साहित्य के क्षेत्र में भोपाल का महत्वपूर्ण योगदान रहा है,
    उम्मीद है इस परम्परा को कायम रखोगे .....मेरी शुभ कामनाएं आपके साथ हैं.

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  7. "अब मोहल्ले बसते नहीं हैं ... बसे बसाए मिलते हैं ..हमे तो बस मकान खरीदने पड़ते हैं... बड़े शहरों में सुना है के पडोसी प्रथा ख़तम हो गयी है .. हमारे यहाँ आज भी होली दिवाली पे पड़ोसियों के घर पकवान भेजे जाते हैं . और हमारे यहाँ भी आते हैं ...मैं खुश हूँ कि छोटे शहर में रहता हूँ..."

    Achchaa hai.. Sach bhi hai..

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  8. जाने क्यूँ सभी के बचपन की यादें इक जैसी ही होती है.नई क्या सभी किताबो की अपनी खुशबू होती है..और पेड़ो पे भूत भी रहते है जिनके पांव उलटे होते है :)

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  9. aap sabhi logo ko bahut baht dhnyavaad ki aap apna samay nikaal kar mere blog ko padhne mein de rahe hain... aapko aage aur bhi acchi kratiya dene mein prayasrat rahunga

    --abhinav pandey

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  10. Apne man ki unmukt udan me aapne hume bhi sahbhagi banaya.Ek achche anubhav ke liye dhanywaad.

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