Monday, March 12, 2012

इक नदी बहा करती थी....



देखा था उसे बचपन में 
घर के पिछवाड़े से ही गुजरती थी वो
मदमस्त, उफनी सी 
शरारती बच्चे की तरह ही तो थी वो 

हरे पीले, तरह तरह के 
जीव जंतुओं की शरणी थी वो
भरी भरी, दौड़ती सी
ठंडी हवाओं की जननी थी वो

घर की बगिया के पेड़ों की 
प्यास बुझाती मालिन थी वो
घर के सभी काम करवाती
कंठ की तृप्ति, रमणीय थी वो 

बचपन बीता, समय रथ घुमा

अब एक छोटी धारा बहती 
लगती नहीं, कभी नदी थी वो
गर्मी में अस्तित्व को लडती
बूढ़े , थके  क्रन्तिकारी सी वो 

शहर के नालों से लडती
अब बूढ़े धीमे कदम बढाती वो 
बस अब काले आंसू बहाती 
जीवों के स्पंदन को तरसती वो

कभी मटकों को भरने वाली 
अब घर के नल से जलती वो
जिस बगिया की थी मालिन 
उसे बंज़र देख, रोती माँ सी लगती वो .....

19 comments:

  1. धन्यवाद शास्त्री जी, आपकी छोटी सी सराहना भी मुझे और लिखने के लिए जोश से भर देती है.

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  2. ghar ke pichhware se bahti wo nadi.. sach me apni lagti hai, maa si:).
    bahut pyari si rachna........

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद सिन्हा जी :)

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  3. कल 15/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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    1. मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार. ब्लॉग जगत में नया हूँ.. आपके प्रोत्साहन ने जोश से भर दिया..:)

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    1. धन्यवाद संगीता जी :)

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  5. अच्छी लगी रचना..

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  6. बहुत सुन्दर रचना...पर्यावरण जागरूकता के भाव लिए..

    टंकण त्रुटि ठीक कर लें..
    २ जगह बघिया नहीं बगिया करें.

    शुभकामनाएँ.

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    1. धन्यवाद एवं त्रुटियाँ बताने के लिए आभार.. :)

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    1. धन्यवाद मृदुला जी :)

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  8. सुन्दर सृजन !
    आभार !

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  9. धन्यवाद शांति जी :)

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  10. सुंदर भाव हैं इस कविता में। ..बधाई हो।

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