Wednesday, July 20, 2016

शांत रातें


मेरी स्वलिखित अंग्रेजी लघुकथा कड़ियों में से एक का हिंदी अनुवाद..त्रुटियों के  लिए क्षमा !!!

शांत रातें 1




आज काफी देर हो गयी थी. गर्मियों का सूरज आसमान में अपनी अथाह शक्ति का एहसास कराते हुए ज़ोर से चमक रहा था. सुबह के ९ बज चुके थे और मैं अपने ऑफिस के लिए लेट हो चुका  था. मैं रोज़ अनूपनगर से विशालनगर, जहाँ मेरा ऑफिस है , ३० किलोमीटर दूर, अपनी कार से जाता  हूँ. यूँ तो मैं सरकारी कर्मचारी विशालनगर में भी कोई कमरा किराये से लेकर रह सकता था. पर रोज़ शाम वापस लौट कर अपने परिवार को देखने से बेहतर एहसास कोई नहीं है.

मैंने अपनी कार शुरू करी और ५ मिनट में ही क़स्बा बहुत पीछे छुट चुका था. गर्मी से भरी हुई उस ग्रामीण सड़क पर मेरी कार अकेली चल रही थी. कभी हरी तो कभी पीली फसलों  से भरी रंग बदलती क्षठा का कार से आनंद लेते हुए मैं चला जा रहा था. इस कस्बे से उस कस्बे के बीच बस खेतों  के अलावा और कुछ नहीं था.

पर हाँ !! एक और दृश्य था जो मैं आपको बताना भूल गया. रास्ते में सड़क किनारे रोज़ मैं उस वृद्ध माँ को देखता था. कम से कम ९० साल की, दुबली पतली सी ये माँ बरगद की छाँव तले रोज़ पानी का बड़ा सा मटका लेकर प्यासे राहगीरों को एक रूपये में गिलास भर पेयजल बेचती थीं. 

अचानक मुझे याद आया कि चूँकि आज मैं लेट हो रहा था, तो जल्दी जल्दी में, मैं अपनी पानी की बोतल रखना भूल गया था. मैंने कार उस वृद्ध माँ के पास रोक दी. 

मैंने कहा "माँ , एक गिलास पानी के कितने रूपये होंगे ?"

वो अपनी बूढी आवाज़ में  बोलीं " बेटा !! पानी पिलाना तो पुण्य का काम होता है. यूँ तो इसे यूँ ही मुफ्त में देना चाहिए, पर अपनी गुज़र करने के लिए मैं एक रुपये प्रति गिलास लेती हूँ. और कभी कोई गरीब वो भी नहीं दे पाता तो उसे यूँ ही दे देती हूँ. आखिर वो हम सबको ही देख रहा है."

ये बोलते हुए, बुढ़ापे से कांपते हाथों से  उन्होंने मुझे मटके से पानी निकाल कर दे दिया. बहुत प्यासा होने के कारण में २ गिलास पानी पिया. पानी बहुत ही मीठा और ठंडा था . मैंने रूपये  देने के लिए अपनी जेब से पर्स निकला. मैंने देखा कि मुझ पर बस १०० के नोट थे. और एक १० का नोट था. मैंने वो १० का नोट देते हुए माँ से कहा ये लीजिये. उन्होंने कहा बेटे मुझ पर इसके खुल्ले नहीं हैं. मैंने कहा की माँजी रख लीजिये. मैं यहाँ से रोज़ निकलता हूँ. पर बहुत मनाने पर भी वो ज्यादा रूपये लेने को तैयार नहीं हुईं और मुझसे कहा  "बेटे, तुम रोज़ यहीं से निकलते हो, जब खुल्ले २ रुपये हों तब दे देना . अभी अपने काम पर जाओ और दिल लगा कर काम करो"

मैं लेट हो रहा था तो मैंने भी जल्दी में उनको धन्यवाद कहा और अपनी कार शहर की ओर बढ़ा दी. काम करते हुए पूरे समय उनका बूढा चेहरा मेरे सामने घूम रहा था. शाम को काम ख़त्म होते ही पास की पान वाली दूकान से मैंने रूपये खुल्ले करवाए और और जेब में अलग से रख लिए. कुछ ही पलों में मैं उसी सड़क पर अपने घर की ओर बढ़ रहा था.  मुझे दूर से वो बरगद का पेड़ दिख रहा था जिसके नीचे वो वृद्ध माँ बैठती थीं.  जैसे जैसे मैं उस पेड़ की ओर बढ़ने लगा मुझे उस पेड़ के नीचे भीड़ लगी दिखने लगी. मेरा मन आशंकित हो उठा.


मैंने पेड़ के पास कार रोकी और भीड़ के लोगों  से पूछा कि क्या हुआ. भीड़ में से एक आदमी बोला "साहब, बूढ़ी औरत थी. पानी बेचती थी यहाँ. वो गुज़र गयी, दुनिया में कोई नहीं था उसका. एक लड़का था जो उसे छोड़ कर भाग गया." मैं कार से उतर कर भीड़ को चीरता हुआ अन्दर गया. वही झुर्रियों से भरा उनका चेहरा एकदम शांत था. वो लेटी हुईं थीं. पास ही उनका मटका टूटा हुआ पडा था. ऑफिस से घर तक का ये सफर मेरे लिए सबसे लंबा सफ़र था.

घर पर सब सो चुके हैं., रात के २ बज रहे हैं. पर नींद मुझसे कोसों दूर है. "वो हम सबको देख रहा है, बेटा !!" शायद उसने उन्हें भी देख कर एक बेहतर जगह भेज दिया. मेरे हाथ में अभी भी वो २ रूपये हैं. आसमान में सितारे चमक रहे हैं..रात्रि शांत है......

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-07-2016) को "खिलता सुमन गुलाब" (चर्चा अंक-2410) पर भी होगी।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. गहरी ... सोचने को मजबूर करती है ये कहानी ...

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